अमर बहादुर का जन्म उत्तर प्रदेश के एक साधारण ग्रामीण परिवार में स्वंतंत्रता
के कुछ ही वर्षों बाद हुआ था। उस जमाने में जमींदारी प्रथा की समाप्ति के
बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में उनका वर्चस्व कायम था। गाँव के प्रभावशाली
परिवारों के आगे अन्य सभी को नतमस्तक होना पड़ना था। अमर बहादुर का बचपन ऐसे ही
परिवेश में बीता था इसलिए उसके मन में बड़े होकर कुछ ऐसा करने की इच्छा थी कि
उसके सामने परंपरागत रूप से प्रभावशाली परिवार भी छोटे पड़ जाएँ।
अमर बहादुर पढ़ाई में होशियार था और वह मैट्रिक की परीक्षा में बहुत ही अच्छे
अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ। उसके पिता को अपने बेटे से काफी उम्मीद थी, इसीलिए
उन्होंने अपनी हैसियत न होने के बावजूद भी उसेआगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद भेज
दिया हालांकि इसके लिए उन्हें अपनी कुछ जमीन गिरवी भी रखनी पड़ी। उसी गाँव के
जमींदार का बेटा विजय सिंह भी इलाहबाद पढ़ाई के लिए गया और वह अमर बहादुर की ही
कक्षा में था। विजय सिंह के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी और वह पूरीशान-शौकत
के साथ कॉलेज के हॉस्टल में रहता था। इसके विपरीत अमर बहादुर को अत्यंत किफ़ायत
के साथ जीवन निर्वाह करना पड़ता था। ऐसे में उसके मन में ईर्ष्या तथा कुंठा का
भाव जागृत होना स्वाभाविक था।
पढ़ाई में अच्छा होने के कारण अमर बहादुर की अपने सहपाठियों के बीच अच्छी धाक
थी। अपने साथियों को मौजमस्ती के लिए पैसा उपलब्ध कराने के कारण विजय सिंह भी
काफी लोकप्रिय और दोस्तों का चहेता था। उन दोनों के बीच एक अघोषित
प्रतिद्वंदिता शुरू हो चुकी थी। उनकी कक्षा में चंद लड़कियां भी थीं और उनमें
से एक लड़की जिसका नाम प्रतिमा था, काफी खूबसूरत थी। यह लड़की अमर बहादुर और
विजय सिंह के बीच प्रतिद्वंदिता का केंद्र बिंदु बन गई। विजय सिंह के पास पैसे
की कोई कमी नहीं थी और पढ़ाई में भी वह बुरा नहीं था। प्रतिमा की अमर बहादुर
तथा विजय सिंह के साथ अच्छी दोस्ती थी। अमर बहादुर से वह पढ़ाई में मदद लेती और
विजय सिंह के पैसों पर दावतों का आनंद लेती थी। स्नातकोत्तर की परीक्षा उपरांत
उन दोनों ने ही प्रतिमा से विवाह का प्रस्ताव रखा। प्रतिमा ने अमर बहादुर को
झिड़क दिया और विजय सिंह का प्रस्ताव झट स्वीकार कर लिया। उन दोनों के एक ही
जाति का होने के कारण प्रतिमा के परिवार को भी इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं
थी। विजय सिंह के परिवार में अब तक सभी रिश्ते परिवार के बुजुर्ग तय करते रहे
थे और किसी को भी अपनी इच्छा से शादी करने की आजादी नहीं थी। परंतु विजय सिंह
पांच बेटियों के बाद पैदा हुआ इकलौता बेटा था। वह अपने माँ - बाप के बुढ़ापे की
दहलीज पर कदम रखने के बाद पैदा हुआ था। विजय सिंह जब जीवन के नियमों का अपवाद
था तो स्वाभाविक था कि वह परिवार के नियमों का भी अपवाद होता। तनिक विरोध के
पश्चात विजय सिंह के परिवार ने भी इस रिश्ते को मंजूरी दे दी। अमर बहादुर को
इस पूरे घटनाक्रम से काफी ठेस पहुँची। उसे लगा कि प्रतिमा ने उसके परिवार की
कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ही उसे तिरस्कृत किया था और विजय सिंह को इसीलिए
अपनाया था कि वह धनी परिवार से था। उसके धनोपार्जन की भूख अब और प्रबल हो गई।
असफल प्रेम प्रसंग के पश्चात अमर बहादुर पूरी मेहनत से पढ़ाई में जुट गया और
उसका चयन एक अखिल भारतीय सेवा में हुआ। उस जमाने में सरकारी अफसरों की समाज
में काफी इज्जत थी और दबदबा भी था। वाहन, दूरभाष जैसी उस जमाने की दुर्लभ
सुविधाएँ भी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को नौकरी की शुरुआत से ही उपलब्ध
होती थीं। आम जनता सरकारी तंत्र के दुरूपयोग को भ्रष्टाचार नहीं बल्कि उनका
अधिकार मानती थी। अमर बहादुर का विवाह बड़े धूमधाम से एक धनी परिवार में हुआ और
उसके माँ-बाप ने दहेज़ में बेशुमार धन बटोरा। प्रशिक्षण पूर्ण करने के उपरांत
अमर बहादुर एक पिछड़े इलाके में पदस्थ हुआ जहाँ आम जनता में अपेक्षाकृत कम
जागरूकता थी। ऐसे पिछड़े क्षेत्र बेलगाम भ्रष्टाचार हेतु उपयुक्त थे और अमर
बहादुर तो सरकारी नौकरी में धनोपार्जन और सिर्फ धनोपार्जन का मन बनाकर ही आया
था। उसने प्रशिक्षण अवधि में ही भ्रष्टाचार के अवसरों का गहराई से अध्ययन कर
रखा था। ऐसे अफसरों को ज्ञान और मार्गदर्शन देने वाले बाबुओं की भी कमी नहीं
होती है। शुरुआत से ही वह भ्रष्टाचार के नए नए कीर्तिमान स्थापित करने लगा।
किसी भी सरकारी तंत्र में कदाचरण की अनौपचारिक रूप से एक सीमा तय होती है और
जब तक मामला इस सीमा के भीतर होता है, उसे अनदेखा कर दिया जाता है। परंतु इस
सीमा का उल्लंघन होने पर तो शिकायतें होनी ही थी। अमर बहादुर की करतूतों से
राज्य मुख्यालय बेखबर नहीं था परंतु कई मामलों को उसके वरिष्ठ अधिकारियों ने
यह समझकर अनदेखा किया कि उसके मातहत उसकी अनुभवहीनता का नाजायज फायदा उठा रहे
हैं। कतिपय गंभीर मामले सिर्फ उसके मातहतों के विरुद्ध हल्की -फुल्की कार्रवाई
कर समाप्त कर दिए गए। इससे उसका हौसला बढ़ता चला गया। उसने अपने गाँव में स्वयं
तथा परिवार के सदस्यों के नाम से जमीन खरीदना शुरू कर दिया, राज्य की राजधानी
में भी एक आलीशान मकान अपनी पत्नी के नाम यह बताकर खरीद लिया कि उसके ससुर ने
अपनी पुत्री को मकान भेंट किया है। ससुर के धनवान होने का एक फायदा यह होता है
कि स्वयं के पाप की कमाई को ससुर से प्राप्त भेंट बताकर सफ़ेद किया जा सकता है।
नौकरी के शुरू के दिनों में उसका भ्रष्टाचार का कार्यक्रम निर्बाध चलता रहा और
उसने अच्छी खासी संपत्ति अर्जित कर ली। वह वर्ष में एक बार अपने गाँव जरूर
जाता और वहाँ वह अपने धन का पूरी शान के साथ प्रदर्शन करता। अब अमर बहादुर के
गाँव आने पर उसके यहाँ दरबार लगता और वह जरूरतमंदों की सहायता भी करता था, कभी
आर्थिक मदद देकर तो कभी अपने सरकारी प्रभाव से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ
देकर। उधर विजय सिंह पढ़ाई उपरान्त गाँव के विद्यालय में शिक्षक बन गया हालाँकि
उसके पास पुश्तैनी संपत्ति इतनी थी कि नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
विज्ञान का अच्छा शिक्षक तथा प्रभावशाली परिवार का होने के कारण उसकी भी गाँव
में काफी इज्जत थी। इस बीच पंचायतों के चुनाव की घोषणा हुई तथा विजय सिंह के
ग्राम पंचायत के सरपंच का पद महिला हेतु आरक्षित कर दिया गया। विजय सिंह ने
अपनी पत्नी प्रतिमा को चुनाव मैदान में उतार दिया। आवेदन दाखिल करने की अंतिम
तिथि से कुछ दिवस पूर्व तक चुनाव मैदान में कोई अन्य उम्मीदवार नहीं था और ऐसा
लग रहा था कि प्रतिमा निर्विरोध चुन ली जायेगी। अमर बहादुर को यह खबर लग गई और
वह तत्काल अपने गाँव पहुँच गया। उसे लगा कि प्रतिमा से मिले तिरस्कार का बदला
लेने का यह अच्छा अवसर है। पहले उसने प्रतिमा के विरुद्ध एक अन्य प्रभावशाली
परिवार की महिला नीलम सिंह को चुनाव मैदान में उतारने की सोची। परंतु उसका
मक़सद प्रतिमा को सरपंच बनने से रोकना नहीं बल्कि स्वयं उसका मान-मर्दन करना
था। यदि नीलम सिंह जीतती तो प्रतिमा को हराने का पूरा श्रेय उसे नहीं जाता।
इसलिए उसने गाँव में सब्ज़ी बेचने वाली एक अत्यंत गरीब महिला, विमला देवी को
चुनाव लड़ने के लिए राजी किया। लोगों को लगा कि यह चुनाव बिल्कुल एक तरफ़ा होगा
परंतु अमर बहादुर के धन और शासकीय प्रभाव ने धीरे-धीरे अपना रंग दिखाना शुरू
कर दिया। जाति-समीकरण विमला देवी के पक्ष में था। अमर बहादुर प्रतिमा को हराने
के लिए कोई भी विधि अपनाने को तैयार था और उसने जाति भावना को हवा दे दी। जब
चुनाव परिणाम आया तो आशा के विपरीत विमला देवी भारी मतों से विजयी घोषित हुई।
अमर बहादुर ने न सिर्फ़ अपने तिरस्कार का बदला ले लिया था बल्कि यह भी प्रमाणित
कर दिया था कि गाँव में उसकी बराबरी कोई और नहीं कर सकता था। कहने की आवश्यकता
नहीं कि गाँव के सभी महत्वपूर्ण निर्णय अमर बहादुर से पूछ कर लिए जाने लगे। वह
चाहता तो अब अपनी पूरी जिंदगी बिना ऊपरी कमाई किये भी बड़े आराम और ठाठ के साथ
गुजार सकता था परंतु जब शेर नरभक्षी हो जाता है तो उसे कुछ और पसंद नहीं आता
है। किसी अन्य व्यसन की तरह ही बेईमानी अब अमर बहादुर की लत बन चुकी थी।
अमर बहादुर की छवि ख़राब होने के कारण एक समय उसे ऐसे पद पर पदस्थ कर दिया गया
जहाँ ऊपरी कमाई का दायरा अपेक्षाकृत कम था। परंतु अमर बहादुर इस से तनिक भी
विचलित नहीं हुआ, वह भ्रष्टाचार के खेल का मंजा हुआ खिलाड़ी था और लहरें गिनकर
भी पैसा कमाना जानता था। उसने अपने मातहतों के शासकीय आवासों के जीर्णोद्धार
की लम्बी-चौड़ी योजना बनाकर काफी बड़ा बजट आबंटित करवा लिया और बिना कोई काम
करवाए सारा पैसा अकेले ही हड़प गया। ऐसे में उसके मातहत कर्मचारियों के अलावा
स्थानीय नेताओं और पत्रकारों ने भी उसके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। राज्य
मुख्यालय में अमर बहादुर के विरुद्ध शिकायतों की झड़ी लग गयी और अंततः एक
वरिष्ठ और साफ़ सुथरी छवि वाले अधिकारी श्री गगन मुखर्जी को शिकायतों की जांच
का जिम्मा सौंपा गया। अपनी ईमानदारी, बुद्धिमत्ता और उत्कृष्ट कार्यों के कारण
गगन मुखर्जी की सभी इज्जत करते थे और निकम्मे तथा भ्रष्ट अधिकारी उससे डरते भी
थे। लोगों को लगा कि अब अमर बहादुर को उसके पापों की सजा मिलकर रहेगी। परंतु
किस्मत शायद अमर बहादुर पर मेहरबान थी। गगन मुखर्जी कुछ ही समय पहले एक गंभीर
रोग से ग्रसित हो गए थे जिसका इलाज काफी महँगा था। हालाँकि सरकार इलाज पर हुए
व्यय की प्रतिपूर्ति तो कर देती थी परंतु अनेकों प्रकार के अन्य व्यय का वहन
गगन मुखर्जी को स्वयं करना पड़ता था। अमर बहादुर फ़ौरन गगन मुखर्जी से मिलने
राज्य मुख्यालय गया। उसने गगन मुखर्जी को अपने अनुकूल जांच प्रतिवेदन देने
हेतु राजी करने की योजना तैयार कर रखी थी। अमर बहादुर ने गगन मुखर्जी को
समझाया कि इस कठिन घड़ी में उन्हें काफी पैसों की आवश्यकता होगी और अभी उनकी
प्राथमिकता अपने परिवार को आर्थिक रूप से सुरक्षित करना होनी चाहिए। जिस
प्रकार मंथरा अपनी वाक्पटुता से कैकेयी की बुद्धि भ्रष्ट करने में सफल हुई थी,
वैसे ही अमर बहादुर अपनी वाक्पटुता से गगन मुखर्जी को पथभ्रष्ट करने में सफल
रहा। गगन मुखर्जी जैसे अधिकारी द्वारा निर्दोष करार दिए जाने के पश्चात यह
प्रकरण समाप्त हो गया। इस प्रकरण से अमर बहादुर को कुछ और ज्ञान भी प्राप्त
हुआ। वह यह समझ गया था कि जिस प्रकार शेर अपने शिकार का जूठन लकड़बग्घा और गीदड़
जैसे जानवरों को खाने देता है, वैसे ही ऊपरी कमाई का जूठन छुटभैये नेताओं और
पत्रकारों के लिए छोड़ देना चाहिए। इस ज्ञान प्राप्ति के बाद उसका शेष सेवा काल
बड़े आराम से बीता और वह बेशुमार दौलत बटोरकर सेवानिवृत हुआ।
सेवानिवृति के बाद कई निजी कंपनियों ने अमर बहादुर को नौकरी देने का प्रस्ताव
भेजा। सरकारी ठेकों पर चलने वाली कंपनियों में अमर बहादुर जैसे सेवानिवृत
सरकारी अधिकारियों की काफी मांग होती है। उसकी क्षमताओं से निजी कंपनियों के
मालिक भली भांति वाकिफ थे और गगन मुखर्जी जैसे अफसर को पथ भ्रष्ट करने में सफल
रहने वाले अमर बहादुर को तो वे मुहमाँगा वेतन देने को तैयार थे। अमर बहादुर ने
ऐसी ही एक कंपनी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वह सरकारी विभागों में घोटाले
करवाकर कंपनी को तथा स्वयं को असाधारण लाभ दिलवाने लगा और शीघ्र ही कंपनी के
मालिक का सबसे चहेता और विश्वासपात्र हो गया। एक ऐसे ही घोटाले के मामले ने
तूल पकड़ लिया और इसकी जांच सी.बी.आई. को सौंप दी गयी। सी.बी.आई. ने बड़ी सख्ती
के साथ अपना काम करना शुरू किया और कई बड़े नेता और अफसर गिरफ्तार हो गए। चर्चा
यह थी कि एक प्रभावशाली मंत्री की भी गिरफ़्तारी हो सकती है। सी.बी.आई. ने
कंपनी के मालिक को पहले ही गिरफ़्तार कर लिया था और अब अमर बहादुर को पूछताछ के
लिए बुलाया। जिस प्रभावशाली मंत्री के गिरफ़्तार होने की संभावना की चर्चा थी,
वह मंत्री इस घोटाले में सीधे लिप्त नहीं था परंतु कंपनी उसे हर घोटाले का एक
निश्चित अंश सिर्फ़ उसका संरक्षण प्राप्त रहने के लिए देती थी। घोटाले में सीधे
लिप्त नहीं होने के कारण सरकारी कागज़ों में उसके विरुद्ध कोई सबूत नहीं था।
नेताओं और अफ़सरों को रिश्वत देने का काम अमर बहादुर ही करता था इसलिए
सी.बी.आई. को इस मंत्री के विरुद्ध अमर बहादुर का बयान किसी भी तरह चाहिए था।
सी.बी.आई. अमर बहादुर पर दबाव बनाने लगी। सी.बी.आई. ने उसे स्पष्ट शब्दों में
कहा कि या तो वह सरकारी गवाह बन जाये या इस घोटाले का एक आरोपी बनकर जेल जाए।
उसे पंद्रह दिनों बाद पुनः पूछताछ हेतु सी.बी.आई. कार्यालय आने का निर्देश
देकर घर जाने दिया गया। घर पहुँचते ही उस प्रभावशाली मंत्री का फोन आया और
उसने धमकी दी कि उसके विरुद्ध मुँह खोलना खतरे से खाली नहीं होगा। इस घोटाले
से जुड़े दो लोगों की पहले ही संदिग्ध अवस्था में मौत हो चुकी थी। अमर बहादुर
ने सोचा नहीं था कि स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी, वह अत्यंत तनाव में रहने लगा और
दो दिन बाद गंभीर हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गई। दौलत की अंतहीन भूख ने अंततः
उसकी जान ही ले ली।
अमर बहादुर के परिवार ने उसकी इच्छा के अनुरूप अंतिम संस्कार उसके पुश्तैनी
गाँव में करने का निर्णय लिया। अपने मिलनसार, हँसमुख व्यक्तित्व तथा हाजिर
जवाबी की वजह से भ्रष्ट होने के बावजूद भी वह अपने साथी अधिकारियों के बीच
लोकप्रिय रहा था। अपने गाँव में तो वह लोकप्रिय था ही। इसलिए उसके अंतिम
संस्कार में काफी लोग शरीक हुए। उसका एक मित्र राजेश कुमार जो हमेशा उसे गलत
राह छोड़ देने की सलाह देता था, भी उसकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए उसके
गाँव पहुँचा। अमर बहादुर की चिता को जब उसका बेटा मुखाग्नि दे रहा था तो किसी
ने राजेश कुमार को संत कबीर का यह दोहा कहते हुए सुना-
"साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय।"